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Bhagoriya 2024: भगोरिया का ऐसा रंग जो सदियों बाद भी है पक्का

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यूं तो हर स्थान का भगोरिया समान ही है लेकिन लेकिन कुछ स्थान पर इसकी विशेष रंगत नजर आती है और उनमें से एक है सोंडवा। मान्यता है कि भगोरिया की शुरुआत राजा भोज के समय हुई थी। उस समय दो भील राजा कासूमार और बालून ने अपनी राजधानी भगोर में मेला आयोजित करना शुरू किया था। लोगों में उत्साह का संचार करने और बाजार को मजबूती देने की यह कोशिश अन्य भील राजाओं को भी पसंद आई और अन्य स्थानों पर लगने लगा मेला परंपरा में परिवर्तित हो गया।यूं तो भगोरिया में परंपराओं के रंग आज भी चटखदार ही हैं खासतौर पर पहनावा, नृत्य-संगीत लेकिन इसमें कुछ नयापन भी शामिल हो गया है। ज्यादातर आदिवासी तो पारंपरिक परिधान पहने ही मेले का हिस्सा बनते हैं लेकिन कुछ युवा ऐसे भी हैं जिनपर अब शहरी रंग चढ़ने लगा है। इसलिए युवक ही नहीं युवतियां भी जींस-टीशर्ट पहने भगोरिया में शामिल होने लगी हैं। मांदल की थाप पर लोकगीतों का राग तो हर किसी को थिरकने पर मजबूर कर ही देता है लेकिन अब ‘डीजे वाले बाबू’ भी यहां की रंगत बढ़ा रहे हैं। एक समूह जहां आपको परंपराओं का निर्वाह पारंपरिक ढंग से करता हुए दिख जाएगा वहीं दूसरा समूह ‘काका बाबा ना पोरिया’ छोड़ आज के फिल्मी गीतों पर थिरक रहा है। ऐसा ही बदलाव मेले के आकर्षणों में एक झूले के साथ भी हुआ है। धरती से आकाश की दूरी मापते गोल पारंपरिक झूले के अलावा अब नाव के आकार का कोलंबस, डिस्को आदि झूले भी यहां लगने लगे हैं। हाट में बिकने वाली सामग्रियों में कपड़े, मसाले, गहने-गोटा ही नहीं अब तो टेडीबियर, नए जमाने के खिलौने और जैविक उत्पाद भी शामिल हो गए हैं। भगोरिया न केवल भारत की पुरानी संस्कृति को पसंद करने वालों के लिए आकर्षण का केंद्र बना हुआ है बल्कि अब तो यहां फोटोग्राफी, सिनेमेटोग्राफी करने वाले भी बहुतायत में आ-जा रहे हैं। यही नहीं अब तो यहां कला व फोटोग्राफी प्रदर्शनी, कला शिविर भी लगने लगे हैं। यह इस बात का सबूत है कि अब मेहमानों की आवाजाही यहां बढ़ गई है। भगोरिया में नृत्य-संगीत की रंगत भी नजर आती है। इस दौरान तीन तालिया, तांगड़िया, धारवा, चमकचाला आदि लोकनृत्य किए जाते हैं। ये नृत्य हर शुभबेला में किए जाते हैं फिर चाहे शादी-ब्याह हो या पूजन-मन्नत। यूं तो मांदल, ढोल, बांसुरी, शहनाई, कुंडी, ताशे, थाली का उपयोग साज के रूप में होता है लेकिन झाबुआ में मांदल, शहनाई, कुंडी और थाली ही उपयोग में लाई जाती है तो आलीराजपुर में ढोल नहीं बजाया जाता। कहीं बांसुरी प्रमुखता से बजती है तो कहीं ताशे भी बजते हैं।

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